Friday, March 28, 2008

बचपन के वो दिन- भाग २

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
पिछले अंक से आगे..
आमा की गुनगुनाट गांव के पास बहती नदी की सरसराहट के साथ मिलकर ज्यादा अस्पष्ट हो जाती है... दिन में भी नदी की आवाज साफ सुनायी देती है लेकिन रात के सन्नाटें में और ज्यादा मुखर हो जाती है. इस नदी की किसी छोटी सी तलिया में गर्मी के दिनों में हम लोग पड़े रहते थे.... और रातें मछली मारने के लिये उपयुक्त मौका प्रदान करती थीं. जब छोटी-बड़ी मछलियां पानी की सतह पर आ जाती हैं, एक सरलता से पकड़े जा सकने वाला शिकार बनने के लिये.


सड़क से मीलों दूर गांव में जहाँ मनोरंजन के लिये सिर्फ रेडियो का आसरा था हम लोग दिन भर खेलते रहते लेकिन शाम को बोर होने लगते. मुझे बडी अच्छी तरह याद है एक बार की छुट्टियों में हमें रात को मनोरंजन का भरपूर मसाला मिला था. मेरे मामा के घर की खिड़की से दूर चीड़ का एक जंगल दिखता था. इसी जंगल में रात को आश्चर्यजनक रूप से कुछ रहस्यमय प्रकाशश्रोत दिखायी देते थे. लोग इन्हें आश्चर्य से इसलिये भी देखते थे, क्यूंकि उनके अनुसार ये हफ्ते में 1 या 2 निश्चित दिनों में किसी साप्ताहिक धारावाहिक की तरह शाम को लगभग 8 से 9 बजे के बीच दिखते थे.

मैने भी कम से कम 2 बार ये नजारा देखा था. यह संख्या में कभी 1-2 तो कभी 5-6 हो जाते थे. दूर जलती किसी तेज टोर्च या मशाल की तरह लगने वाले ये प्रकाशश्रोत कभी एकजुट हो जाते. कभी समान या असमान दूरी पर जाकर अलग हो जाते. बडा ही रोमांचकारी नजारा होता था. दिल में कुछ कौतूहल और कुछ घबराहट लिये हम ये सब देखते रहते. और लगभग 10-15 मिनट तक खिड़की से नहीं हटते थे.

कुछ बड़े होने पर दिमाग के चक्षु खुले तो कहीं पर पड़ने को मिला कि इस के पीछे कोई चमत्कार या पारलौकिक वस्तु नहीं है. फास्फोरस की अधिकता वाली मिट्टी के ऊपर खड़े जंगलों में होने वाले इस घटनाक्रम के पीछे फास्फोरस का रासायनिक गुण है, जो दिन में प्रकाश संचित कर रात को इसे उत्सर्जित करता है. संभवतः यह जंगल किसी जमाने में शमशान की तरह प्रयोग में लाया जाता होगा. हड्डियों में उपस्थित फास्फोरस के कारण इस भूमि में इसकी अधिकता हो गयी होगी.

देश में हो रहे आर्थिक विकास की कोई निशानी इस गांव में नजर नहीं आती है. बमुश्किल एक सरकारी काम नजर आता है, वह है नदी पर बना एक छोटा सा पुल. बरसात के मौसम में नदी जब उफान पर होती थी तो इसे पार करने की कोशिश कर रहे एक या दो लोगों को हर साल बहा कर ले जाती थी. कई सालों से बिजली के खंबे खड़े हैं पर बिजली नहीं है.

सड़क के लिये 'सर्वे' लगभग 15 साल पहले हो चुका है. लोगों को उम्मीद थी कि सड़क बनने पर आवागमन में तो आसानी होगी ही, इस इलाके में होने वाले फलों को भी कस्बों में ले जाकर बेचने पर कुछ आमदनी की जा सकेगी. लेकिन फलों की तो छोड़िये रोगी को भी भारी परेशानी उठा कर लोग अस्पताल पहुंचा पाते हैं. मुझे तो चिंता है कि किसी दिन अगर मेरे नाना-नानी को अचानक अस्पताल पहुंचाने की जरूरत पड़ेगी तो इसके लिये पर्याप्त लोग जुट पायेंगे या नहीं? क्योंकि गांव के अधिकांश युवक तो नौकरी करने के लिये 'मैदानों' में आ चुके हैं.

1 comment:

Tathaastu said...

jaari rakhen, hum aakar parte rehte hain