Thursday, February 21, 2008

बचपन के वो दिन- भाग १

पहाड़ों से जुडी कई यादें हैं दिमाग में. सच कहूँ तो पहाड़ दिमाग में छाया रहता है हर समय. आज सुबह से अपने मामाकोट (ननिहाल) की याद बरबस आ रही है. शायद अपने आमा- बूबू (नाना- नानी) की खराब तबियत की खबर ने ही मुझे आज खींचा है वापस अपने ननिहाल की तरफ. तीनों बेटे (मेरे मामाजी) शहरों में काम करते हैं. नाना, नानी अपना घर छोडने के बारे में सोचना भी नहीं चाहते.

डीडीहाट के पास ही थल को जाने वाली रोड पर लामाघर घाटी नाम का एक स्टेशन है, स्टेशन क्या है? एक छोटी सी दुकान है दुकानवाले ने ही लोगों के बैठने के लिये एक बेंच लगा रखी है. आस पास का पूरा क्षेत्र चीड के पेडों से भरा है. उस रोड पर गाडी का सफर जो रोमांच पैदा करता है वो कभी भुलाया नहीं जा सकता.
हर बड़े मोड पर भीषण दुर्घटना का स्मृतिपटल अनिवार्य रूप से उपस्थित है. जब मैं छोटा था, अपनी ईजा के साथ मामा के घर जाने का उत्साह दबा नहीं पाता था. सीधी जाने वाली एक ही बस का सहारा था पिथौरागढ- राईआगर वाली 8.30 बजे सुबह की रोडवेज का. वरना फिर जाओ थल और वहाँ से 8 कि.मी. पैदल चलो. पहला विकल्प भी यद्यपि श्रमसाध्य ही था. एक छोटी सी नदी तक 4 कि.मी. की ढलान, जिसके किनारे 2 घट्ट (पनचक्कियां) थीं. उसके बाद 2 कि.मी. की चढाई. तब आता है गांव चमाली.

वहाँ जैसे-तैसे पहुँच तो जाते थे, उसके बाद लौटने में होने वाले कष्ट का ध्यान ही नहीं रहता था. गर्मियों में आम और पपीते तथा सर्दियों में नारिंग(संतरे), माल्टा, चूख(बडे नींबू) खाने में खो ही जाते थे हम लोग. अगर गन्ना पिराई के सीजन में पहुंचे तो ताजा निकला गन्ने का रस भी दबा के पीते थे. गांव में भौतिक संसाधनों का टोटा था (बिजली, रोड, रेडियो आदि) लेकिन प्रकृति ने खूब उपजाऊ भूमि दी है. जिसे मेरे नानाजी ने सेना से सेवानिव्रत्त होने के बाद अपनी मेहनत से गुलजार कर दिया था.

ये इलाका सदियों पहले हुणियों (तिब्बती व्यापारियों) और भारतीय व्यापारियों की मन्डी के निकट स्थित था. कुमाऊँ के चन्द राजाओं का समकालीन प्रमुख मन्दिर सीराकोट इस गांव के पूर्व में बहुत ऊँची चोटी पर बसा है. इसी मन्दिर के नजदीक चन्द राजाओं के बनाये हुए किले के ध्वंसावशेष स्थित हैं. यह वही किला है जिसमें रानी श्रंगारमंजरी और उसके मंत्री मोहन सिंह ने चन्दवंश के अन्तिम शक्तिशाली राजा दीप चन्द को बंदी बना कर रखा, और राजा ने भूख-प्यास से तडपते हुए अन्तिम सांसे लीं.

मुझे अपनी आमा का गुनगुनाट बहुत याद आता है, उनकी आदत थी बहुत सुबह उठ जाने की, लगभग 3-4 बजे. हम लोग सोये रहते थे वो चाय बना कर पीती और दूसरे कमरे में कुछ न कुछ बोलती रहती. उस गुनगुनाट के जो अस्पष्ट बोल हमारे कानों में पढते थे उनमें कभी गांव-पडोस की बातें होती, कभी खेतों और पशुओं के साथ होने वाले काम की फिक्र, बेटे या बेटी की शादी की चिन्ता तो कभी बच्चों के लिये प्यार भरे बोल होते थे।

इस लेख का शेष भाग यहां पर पढें..

2 comments:

Shailesh Upreti said...

sabse pahle maakot ki aama ko meri Pailaag,,,sach main aapne mera dil bhar diya hai hem ji...aaah maakot ki yaad,,,wahaan hote hain kafal n maalta...aaaaaaaaah...thnx for writing on such a very heart touching and adorable subject...keep it up...i want more and more words...

monika jakhmola said...

accha he aapka paryas kya me bhi apni garwal se judi kuch yade yha share kar sakti hu...pls bataiye kaise banate he blog....thnx