Wednesday, July 31, 2019

बिजी जा दी लाटी : Hearttouching Garhwali Song Of Narendra Singh Negi (Lyrics and Meaning)

नरेन्द्र सिंह नेगी जी का यह भावपूर्ण गाना उनकी आडियो कैसेट “नयुं नयुं
ब्यो छ” में आया था.

एक नवविवाहिता अपने मायके आई है, अब उसके वापस
ससुराल जाने का दिन आ पहुंचा है. नवविवाहिता अभी किशोरावस्था में ही है,
उसे पैदल ही ससुराल तक जाना है और साथ में कोई परिचित भी नहीं है. इस दशा

में युवती के पिता की चिन्ता स्वाभाविक है. युवती का पिता उसे  सुबह जल्दी उठकर
तैयारी करने के लिये कहता है, साथ ही रास्ते में सावधानी बरतने और अगले
साल फिर से उसे मायके बुलाने की कामना करता है.

आज तकनीकी विकास के कारंण यातायात और संचार के माध्यमों से दूरियां सिमट
चुकी हैं, आने वाली पीढी शायद बीते जमाने की उन पहाड़ी महिलाओं के
दुख-दर्द का अन्दाजा नहीं लगा पायेंगी जिन्हें अपने मायके के समाचार पाने
के लिये भी महीनों और सालों तक इन्तजार करना पड़ता था. लेकिन उम्मीद की जा
सकती है कि नेगी जी के ऐसे हृदयस्पर्शी गाने आने वाली पीढियों में भी
पहाड़ के प्रति संवेदनाओं को जिन्दा रखने में सहायक होंगे.

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भावार्थ – लाटी (प्यार भरा सम्बोधन) जल्दी से उठ, तुझे बहुत दूर अपनी
ससुराल पहुंचना है, उठ और अपने बाल संवार ले. बेटी! झट से उठ, गुस्सा मत
कर. तेरे आलस के कारण निकलने में देर हो गई तो तुझे अपने ससुराल
पहुंचते-पहुंचते रात घिर आयेगी. जदी उठ, हाथ पैर धोकर तैयार हो जाओ, मौसम
का भी कोई भरोसा नहीं है. रास्ते में भले ही तू थोड़ा आराम करने के लिये
बैठ जाना लेकिन रास्ते में मिलने वाले लोगों से बातचीत ही करते न रह
जाना. तुझे अकेली जाना है, इसलिये अपना ध्यान रखना और आराम से जाना.
यदि भगवान की कृपा से सब कुशल-मंगल रहा  तो अगले साल फिर तुझे मायके
बुलाऊंगा. तू आकर कौतिक के महीने में एकाध महीने रहेगी और फिर मैं तुझे
कुछ भेंट, दान-दहेज देकर विदा करूंगा.
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बिजी जा दी लाटी, बिजी जा दी लाटी
पैठ दूर- च सैसुर, गाड स्युंदी पाटी
बिजी जा दी लाटी….
खड़ हो बेटि पैट लेदि, खिजेणुं नि खाणुं - खड़ हो बेटि पैट लेदि, खिजेणुं नि खाणुं
पेटद-पेटद त्वैकु रात पोड़ि जाणुं
बिजी जा दी लाटी
पैठ दूर- च सैसुर, गाड स्युंदी पाटी
बिजी जा दी लाटी……….
सल्पट्ट कैर झट्ट, हाथ खुट्टि ध्वै ले - सल्पट्ट कैर झट्ट, हाथ खुट्टि ध्वै ले
डाण्ड वारि बथों छ्वारि, सिनकोळि जै ले
बिजी जा दी लाटी
पैठ दूर- च सैसुर, गाड स्युंदी पाटी
बिजी जा दी लाटी……….
बिसोंण बिसेलि बाटा, छुयुं मां ना रेईं - बिसोंण बिसेलि बाटा, छुयुं मां ना रेईं
यकुलि छे डेरि ना ब्वै, माठु-माठु जेईं
बिजी जा दी लाटी
पैठ दूर- च सैसुर, गाड स्युंदी पाटी
बिजी जा दी लाटी……….
सुख राल हैंका साल त्वै मैत बुलोंलु - सुख राल हैंका साल त्वै मैत बुलोंलु
कौतिक ए मैनाध रे, दौंण दैज दयोलु
बिजी जा दी लाटी
पैठ दूर- च सैसुर, गाड स्युंदी पाटी
बिजी जा दी लाटी……….
बिजी जा दी लाटी
पैठ दूर- च सैसुर, गाड स्युंदी पाटी
बिजी जा दी लाटी……….
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Biji ja di laati, Biji ja di laati,
Paith door- cha saisur, Gaad syundi paati
Biji ja di laati,….
Khad ho beti pait ledi, khijenu ni khaanu - Khad ho beti pait ledi,
khijenu ni khaanu
Petad-petad tvaiku raat podi jaanu
Biji ja di laati, Biji ja di laati,
Paith door- cha saisur, Gaad syundi paati
Biji ja di laati,….
Salpatt kair jhatt, haath khutti dhvai le - Salpatt kair jhatt, haath
khutti dhvai le
Daand vaari bato chhvaari, sinkoli jai le
Biji ja di laati, Biji ja di laati,
Paith door- cha saisur, Gaad syundi paati
Biji ja di laati,….
Bison biseli baata, chhuyu maa ni rei - Bison biseli baata, chhuyu maa ni rei
Yakuli chhe deri na bvai, maathu-maathu jei
Biji ja di laati, Biji ja di laati,
Paith door- cha saisur, Gaad syundi paati
Biji ja di laati,….
Sukh raalo hainka saal tvai mait bulolu - Sukh raalo hainka saal tvai
mait bulolu
Kautik ai mainaadh re, daun daij dyolu
Biji ja di laati, Biji ja di laati,
Paith door- cha saisur, Gaad syundi paati
Biji ja di laati,….
Biji ja di laati, Biji ja di laati,
Paith door- cha saisur, Gaad syundi paati
Biji ja di laati,….

Friday, July 20, 2018

यात्रा वृत्तान्त - नेपाल बहुत सुन्दर है

प्राकृतिक विविधता और हर पर्यटक के अनुसार मनोरंजन साधनों के कारण नेपाल फिर से तेजी के साथ घुमक्कड़ों की पसन्द बनता जा रहा है। सीमा पार करने की सुगम सुविधाओं के कारण भारत से हर साल भारी संख्या में लोग नेपाल घूमने जाते हैं। लम्बे समय तक राजनैतिक अस्थिरता के बाद अब उथल-पुथल रुक गई है, संविधान का निर्माण हो चुका है और अब नेपाल के लोगों को उम्मीद है कि देश में तेजी से विकास होगा।

पिछले दिनों साथी सुनील सोनी के साथ उनकी कार से नेपाल के दो राज्यों में घूमने का मौका मिला। रविवार दिन में लगभग 4 बजे रुद्रपुर से निकलने के बाद हम दोनों लोग बनबसा (गड्डाचौकी) बोर्डर से होते हुए उसी शाम 7 बजे महेन्द्रनगर पहुंचे। अब रुद्रपुर से बनबसा तक सड़क की स्थिति बहुत अच्छी है। नेपाल की सीमा में प्रवेश करने के बाद कार का शुल्क (लगभग 300 भारतीय रुपये प्रतिदिन) देकर आसानी से रोड परमिट बन जाता है। हम लोगों का रात का विश्राम धनगढ़ी में था। महेन्द्रनगर से धनगढ़ी तक शुक्लाफांटा नेशनल पार्क के बीच से गुजरते हुए बहुत ही सुगम सड़क है। नेपाल में हर जगह सड़कों का काम बहुत तेजी से हो रहा है।

रात लगभग 9.30 बजे हम लोग धनगढ़ी शहर पहुंचे जहाँ हमारे मेजबान श्री केदार भट्ट जी हमारा बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। मूल रूप से पिथौरागढ़ के निवासी श्री केदार भट्ट धनगढ़ी शहर के प्रतिष्ठित शिक्षक हैं। लगभग 40 साल से नेपाल में रहते हुए उन्होंने शहर में विज्ञान शिक्षक के रूप में बहुत नाम कमाया है, अभी भी धनगढ़ी में कई स्कूलों के साथ जुड़कर शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। श्रीमती भट्ट भी योग प्रशिक्षण के माध्यम से लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक कर रही हैं।




 नेपाल में संविधान निर्माण के बाद 7 राज्यों का निर्माण किया गया है और अब वहां भारत की तरह ही त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था स्थापित हो चुकी है। धनगढ़ी शहर को राज्य-7 की राजधानी बनाया गया है। यह एक तेजी से उभरता हुआ शहर है। शहर के आसपास ही भारतीय मूल के लोगों द्वारा संचालित कृषि आधारित औद्योगिक प्रतिष्ठान भी हैं। सड़कों के चौड़ीकरण का काम चल रहा है और बाजार-दुकानों में आधुनिकता की झलक दिखाई देने लगी है। एक अच्छी बात ये भी है कि नेपाल में अधिकांश दुकानें महिलाओं द्वारा चलाई जाती हैं। धनगढ़ी में कई उच्चस्तरीय पेशेवर शैक्षिक संस्थान भी हैं। यहां नॉर्वे की सहायता से स्थापित चेरिटेबल 'गेटा नेत्र अस्पताल' में आधुनिक मशीनों की मदद से सस्ती चिकित्सा सुविधा उपलब्ध है। इस अस्पताल में यूपी-बिहार की तरफ से भी लोग आंखों के ऑपरेशन करवाने आते हैं। दिनभर धनगढ़ी घूमने के बाद अगले दिन हमने नेपालगंज जाने का विचार बनाया।

अगली सुबह 6 बजे हम दोनों लोग कार से नेपालगंज शहर की तरफ निकले जो धनगढ़ी से लगभग 200 किमी दूर है। इस रास्ते पर लगभग 20 साल पहले भारत ले सहयोग से 22 पुलों का निर्माण किया गया है। सड़क बहुत ही अच्छी है। एक पहाड़ी श्रृंखला अधिकांश रास्ते में सड़क के समानांतर चलती है। सड़क के किनारे हरियाली भरे खेत, छोटे कस्बे और ग्रामीण जीवन के खूबसूरत नजारे दिखते हैं। जगह जगह धान की रोपाई लगाते हुए नेपाल के लोग पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर और खुशहाल नजर आते हैं। बीच रास्ते में 'घोड़ा-घोड़ी ताल' नामक एक सरोवर है जहां खूब कमल के फूल खिलते हैं। आगे जाकर चिसापानी नामक स्थान पर 'करनाली नदी' के ऊपर जापान के सहयोग से एक भव्य पुल बना हुआ है। इस पुल को पार करते ही 'बर्दिया नेशनल पार्क' का इलाका शुरू हो जाता है।


 नेपाल में सभी संरक्षित वनों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सेना के हाथों में है। 'बर्दिया नेशनल पार्क' के बीच से गुजरती हुई शानदार सड़क पर भी सेना लगातार गश्त करती है। इस सड़क से गुजरते हुए कहीं भी रुकने की मनाही है। गाड़ी से प्लास्टिक या अन्य गन्दगी फेंकने पर भारी जुर्माना लगता है। 'बर्दिया नेशनल पार्क' के बीच से गुजरने वाले East-West National Highway पर वाहनों से होने वाली दुर्घटनाओं की रोकथाम के लिए एक अनूठा तरीका है। 'बर्दिया नेशनल पार्क' में प्रवेश करते ही वनचौकी पर रुककर वाहन का टाइम कार्ड बनता है। एक चौकी से दूसरी चौकी की दूरी के बीच 40किमी/घण्टा की स्पीड से दूरी तय करनी होती है। 13किमी दूरी के लिए लगभग 20-22 मिनट तय है। रास्ते मे कहीं भी गाड़ी रोकने की अनुमति नहीं है। जल्दी पहुंचने का मतलब है कि आपने गाड़ी तेजी से चलाई है और देरी से पहुंचने का मतलब आप रास्ते में कहीं रुके थे। दोनों स्थितियों में जुर्माना हो सकता है। जंगल से बाहर निकलते समय सेना द्वारा गाड़ी की एक बार फिर से अच्छी तरह जांच की जाती है। गाड़ी से जंगली जानवर को चोट पहुंचाने पर 6 महीने की सजा और एक लाख नेपाली रुपये जुर्माना।
नेपाल में ज्यादातर लोग बस-मैटाडोर से सफर करते हैं। रोड पर ट्रैफिक बहुत ज्यादा नहीं है। इसका एक मुख्य कारण यह भी है कि 200% कस्टम ड्यूटी के कारण कार और बाइक बहुत महंगी हैं। भारत में जो कार ₹5 लाख की है वो नेपाल में ₹15 लाख में आएगी (लगभग 23-24 लाख नेपाली रुपये) बड़े और मध्यम स्तर के शहरों के बीच Air Connectivity भी बहुत अच्छी है। सड़कों की स्थिति ठीकठाक है और भारतीय गाड़ियों के लिए बहुत सुगमता है। हमारे साथी मुकेश पांडे और उमेश पुजारी पिछले साल इसी रास्ते बाइक पर पूरा नेपाल लांघते हुए भूटान तक गए थे।
भारत के लोगों के साथ नेपाल के निवासी बहुत मित्रवत व्यवहार करते हैं। भाषा सम्बन्धी कोई खास समस्या भी नहीं होती। अकेले घूमने के शौकीन लोगों के लिए नेपाल में कई सुविधाएं उपलब्ध हैं और पारिवारिक भ्रमण के लिए भी नेपाल एक सुरक्षित स्थान है।

 ...अगर आप दुनिया घूमने का शौक का शौक रखते हैं तो नेपाल से शुरुआत कीजिए, बिना पासपोर्ट और वीजा के

Wednesday, March 21, 2018

हमारे समाज को कई प्रताप मास्साब चाहिए...

18 मार्च 2018 को दिनेशपुर के प्रताप सिंह मास्साब अंततः जिंदगी की लड़ाई से हार ही गए। उनका पूरा जीवन मजदूर-किसानों और युवाओं के लिए संघर्ष करने में गुजरा। बरेली जिले के शाही कस्बे में किसान परिवार में जन्मे मास्साब ने सामाजिक कार्यों की शुरुआत शिशु मंदिर में आचार्य बनने के साथ ही शुरू कर दी थी। अपने आसपास के समाज को बेहतर बनाने की ललक ने उनको कभी चैन से बैठने नहीं दिया। पिछले 2 साल में हड्डी के कैंसर के कारण उनका शरीर दुर्बल होता चला गया था लेकिन अपने अंतिम दिन तक मानसिक रूप से वो बहुत मजबूत थे। उनकी बातें सुनकर लगता था कि मानसिक मजबूती से वो कैंसर को जरूर हरा देंगे। बीमारी उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और मानसिक बल को तो नहीं तोड़ पाई लेकिन शरीर ने साथ छोड़ ही दिया।



मास्साब के जीवन में जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह ये थी कि मास्साब कभी किसी राजनीतिक विचारधारा के गुलाम बनकर नहीं रहे। मजदूर-किसानों की जिंदगी को बेहतर बनाना, जुल्म के ख़िलाफ़ आवाज उठाना उनके जीवन का लक्ष्य था और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्हें जो माध्यम ठीक लगा वो उसी पर चले। तराई में हर छोटे बड़े जनसंघर्षो के साथ पूरी सक्रियता से जुड़े। बीमारी से जूझते हुए भी वो जब तक आंदोलन में शामिल हो सकते थे उत्तराखण्ड के कोने कोने में पहुँचकर आंदोलनों को आगे बढ़ाया। तराई में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मजबूती देने वाले लोगों में उनका नाम आज भी याद किया जाता है। बाद में वैचारिक मतभेद पैदा होने के बाद वो कम्यूनिस्ट विचारधारा से जुड़े और समाजहित के काम में लगातार सक्रिय रहे। राजनीतिक दलों की आंख की किरकिरी तो वो पहले से ही थे, राज्य बनने के बाद उनको फर्जी मुकदमे लगाकर परिवार सहित बहुत प्रताड़ित भी किया गया। उनकी फर्जी गिरफ्तारी का मुद्दा उत्तराखण्ड विधानसभा में भी उठा था। उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति के दौर में तराई में वो उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के अग्रणी नेता थे,जबकि उस समय तराई में उत्तर प्रदेश में बने रहने के लिए एक अलग आंदोलन चल रहा था। तराई के सभी जनसंघर्षों में शामिल होने के साथ साथ वो पहाड़ की जनता के साथ भी हर संघर्ष में खड़े रहे। जिंदल कम्पनी के खिलाफ नानीसार (रानीखेत) के अवैध स्कूल के लिए आंदोलन में उन पर मुकदमा चला। उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के केंद्रीय अनुशासन समिति के अध्यक्ष रहे और 2014 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी जनकवि बल्ली सिंह चीमा के प्रचार के दौरान फर्जी चुनाव आचार संहिता के मामले में भी मुकदमा झेला, जेल भी गए।

अपने जन्मस्थान शाही (बरेली) में भी समय समय जनता से जुड़े मुद्दों पर आंदोलन खड़े करते रहे। जनता से जुड़े हर मुद्दे के साथ वो अपनी सम्पूर्ण ताकत से जुड़ते थे और संघर्षो को आगे बढ़ाते थे। कैंसर से जूझते हुए भी जब वह शरीर से अत्यंत दुर्बल हो गए थे तब भी सोशल मीडिया के माध्यम से यथासम्भव अपनी आवाज बुलंद करते रहे। देश मे कृषि की समस्या पर एक किताब लिख रहे थे और मिजाजपुर्सी करने के लिए आने वाले लोगों से बड़े उत्साह से किताब के बारे में बात करते थे। मास्साब से मेरा परिचय लगभग 8 साल पुराना था, उनके बेटे रूपेश से दोस्ती के चलते मास्साब से मिलने का मौका मिला, उसके बाद पूरे परिवार के साथ घनिष्टता बढ़ती चली गई। सामाजिक कार्यों में लगी हुई युवा पीढ़ी को मार्गदर्शन और सहयोग देने की उनकी बहुत इच्छा रहती थी और उन्होंने अपने अंतिम दिनों तक इस काम को बखूबी अंजाम भी दिया।

देहांत से लगभग 20 दिन पहले उनसे अंतिम मुलाक़ात के समय मैने उनसे किताब के बारे में पूछा तो बोले कि मेरे बोले हुए को कोई लिखने वाला मिल जाए तो जल्दी ही किताब पूरी कर लूंगा। हिलते हुए हाथों से डायरी लिखते रहे। मासिक पत्रिका 'प्रेरणा अंशु' पत्रिका के बिना मास्साब के बारे में बात अधूरी रह जाएगी। एक छोटे से अंजान कस्बे दिनेशपुर से लगातार 32 साल से राष्ट्रीय पत्रिका 'प्रेरणा अंशु' का प्रकाशन मास्साब की अदम्य जिजीविषा के कारण ही सम्भव हो पाया है। इस समय जब तकनीकी बदलावों और लोगों की बदलती आदतों के कारण बड़ी बड़ी पत्रिकाएं और समाचारपत्र अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, ऐसे में 'प्रेरणा अंशु' पत्रिका को निरन्तरता के साथ लोगों तक पहुंचाना मास्साब के दृढ़ निश्चय की सशक्त मिसाल है। सामाजिक कार्यों में सशरीर उपस्थित रहने की उनकी इच्छा के कारण बीमारी की शुरुआत में मास्साब थोड़ा लापरवाह भी रहे। मास्साब के पूरे परिवार ने मास्साब का हमेशा साथ दिया, जनसंघर्षों में भी और बीमारी में भी। मास्साब चले गए लेकिन कमजोर तबकों को उत्पीड़न से बचाने का, समतामूलक-प्रगतिशील समाज बनाने का उनका सपना पूरा करने के लिए संघर्ष तो हमेशा जारी रहेगा। मुझे विश्वास है कि मास्साब के जीवन से प्रभावित होकर समाजहित मे काम करने वाले जो सैकड़ों लोग हमारे आसपास बिखरे हुए हैं वो मास्साब के काम को आगे बढ़ाएंगे।

Wednesday, February 1, 2017

पंछी बनकर उड़ने की चाह

बात सन् 1993-94 की है, हम लोग 9th में पढ़ते थे। पिथौरागढ़ में हमारे स्कूल की तरफ पहली बार पैराग्लाइडिंग का प्रशिक्षण शुरू हुआ। रंगीन छतरियों की उड़ने की कोशिश को नजदीक से देखने की चाहत में हम बहुत बार स्कूल से भागकर उस पहाड़ पर चढ़ जाते थे जहाँ Paragliding चल रही होती थी। उस समय उड़ान भरने की तो हमारी उम्र थी नहीं, लेकिन ये तो ठान ही लिया था कि किसी दिन अपने गांव-शहर का Bird's Eye View जरूर देखना है।

लगभग उसी दौरान पिथौरागढ़ में हवाई पट्टी का उदघाटन हुआ तो शहर के लोगों के सपनों को पंख लग गए। ऐसा कहा जाने लगा कि अब जल्द ही पिथौरागढ़ विश्वभर के पर्यटन मानचित्र पर छा जाएगा। ऐसा हो भी सकता था क्योंकि यहां के अनछुए पर्यटक स्थलों में विश्वभर के पर्यटकों को आकर्षित करने की पूरी सम्भावनाएं छुपी हुई हैं। लेकिन अफ़सोस की बात है कि एअरपोर्ट की कहानी आज 23 साल बाद भी 'घोंघे की रफ्तार' से आगे बढ़ रही है। खैर...



वापस पैराग्लाइडिंग पर लौटते हैं.. पहले पढ़ाई और बाद में नौकरी की उलझनों में फंसकर बहुत लम्बा समय निकल गया। पिथौरागढ़ में पैराग्लाइडिंग करने की इच्छा मन में बनी रही पर संयोग बन नहीं पा रहा था। इस बार की छुट्टियों में शंकर सिंह जी के मार्गनिर्देशन में पिथौरागढ़ के आसमान में  पैराग्लाइडिंग करने का मौका मिला तो इस अनुभव की अमिट यादें दिल के कोने में दर्ज हो गईं।

30 जनवरी'17 को मौसम साफ़ था, हल्की धूप थी और बादल बिल्कुल भी नहीं थे। हवा की तीव्रता थोड़ा कम थी। कुल मिलाकर पैराग्लाइडिंग के लिए ठीकठाक मौसम था। मुझे एडवोकेट मनोज ओली जी के साथ 'टेंडम फ्लाइट' में उड़ना था और हमारा साथ देने के लिए शंकर दा ने 'सोलो फ्लाइट' की। एअरपोर्ट के ठीक ऊपर समुद्रतल से लगभग 1900 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कनारी-पाभैं की चोटी पर पहुँचकर एक अलग ही अनुभूति हुई। यहां से पिथौरागढ़ की 'सोरघाटी' का पूरा नजारा एक ही नजर में दिख जाता है। इतनी ऊँची जगह से मैंने भी पहली बार अपने शहर को देखा था। और अब इससे भी ऊपर उड़ने को मैं उत्साहित था। देश, राज्य और पिथौरागढ़ जिले में साहसिक खेलों को आगे बढ़ाने वाले दो महत्वपूर्ण लोग आज मेरे साथ थे। मैं शंकर दा और मनोज जी से बातचीत करते हुए उनके अनुभवों से बहुत कुछ सीखता-समझता जा रहा था। दोनों पैराग्लाइडर बैग से निकल चुके थे और हम लोग कैमरा और बांकी उपकरणों के साथ पूरी तरह से तैयार हो गए। हवा की अनुकूल दिशा के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ा। मनोज ओली जी के निर्देश मिलते ही ढलान की तरफ लगभग 10 कदम की दौड़ लगाने पर ग्लाइडर हवा में उठ गया। अपने रोमांच को नियंत्रित करने में मुझे 5-7 सेंकड लगे और उसके बाद मैं अपने सपने को पूरा होते देखने का आनन्द उठाने लगा।



वाह! अदभुद अनुभव,, हमारे बाएँ हाथ की तरफ नेपाल के पहाड़, सलेटी का मैदान और वड्डा था। सामने मेरे गाँव का ऊपरी कोना, कामाक्ष्या मन्दिर और सेंट्रल स्कूल। दाएं हाथ की तरफ हवाईपट्टी, पिथौरागढ़ का मुख्य शहर और पैरों के नीचे कनारी-पाभैं, नैनीसैनी गाँव थे। ऊपर से दिखने वाली जानी पहचानी पहाड़ों की चोटियां, गहरी खाइयां, जंगल, खेल के मैदान, नदियां,,, इन सबसे मेरा बचपन से ही भावनात्मक जुड़ाव रहा है। मैं सोचने लगा हमारे आसपास उड़ रहे चील उड़ते हुए कितना सुंदर नजारा देखते हैं।

लगभग 10 मिनट हवा में रहने के बाद बहुत ही सुरक्षित लैंडिंग हुई। इस यादगार हवाई यात्रा के बाद जब हम हवाईपट्टी के पास बने हुए अपने लैंडिंग पॉइंट पर उतरे तो मेरे दिल में सन्तुष्टि का भाव था। थोड़ी देर बाद शंकर दा का पैराग्लाइडर भी नीचे उतरा।



शंकर सिंह जी और मनोज ओली जी से हुई लम्बी बातचीत और इस पैराग्लाइडिंग अनुभव के बाद मैंने  महसूस किया कि उत्तराखंड राज्य में (खासकर पिथौरागढ़ जिले में) रॉक क्लाइम्बिंग, फिशिंग, हाईकिंग, माउंटेनियरिंग, माउंटेन बाइकिंग, वाटर स्पोर्ट्स जैसे साहसिक खेलों को बढ़ावा दिया जाए तो हम स्विट्ज़रलैंड को भी पीछे छोड़ सकते हैं। हमारे पास कमी है तो सिर्फ सुगम आवागमन सुविधाओं की और ठोस सरकारी नीतियों की।

पैराग्लाइडिंग के इस अनुभव के साथ एक और चीज हमेशा याद रहेगी,,, उड़ने से पहले और बाद में सड़क के किनारे बैठकर गुड़ की 'कटकी' के साथ अदरक वाली जायकेदार चाय की चुस्कियां।

शुक्रिया शंकर सिंह जी (मो. 8979227575 ), एडवोकेट मनोज ओली जी (मो. 9412374199)
टेक ऑफ से लैंडिंग तक का पूरा वीडियो,, http://www.youtube.com/watch?v=l3WrVDlANCA

Tuesday, October 20, 2015

कुमाऊंनी रामलीला : कला-संगीत के साथ सदभावना का रंगमंच


हमारे बचपन के दिनों में आज की तरह मनोरंजन के बहुत ज्यादा साधन नहीं थे। पिथौरागढ शहर और आसपास के गांवों में रामलीला की उत्सुकता से प्रतीक्षा की जाती थी। बढती जा रही ठण्ड की रात कस्बों में रामलीला शुरु होने से पहले ही लोग अपनी जगह पर आकर बैठ जाते थे। घरों से स्टूल, दरी और बुजुर्ग लोग कम्बल लपेट कर जगह घेर लेते थे। युवाओं-किशोरों के मन में रात के मेले में स्वच्छन्द घूमने का आकर्षण होता था तो बुजुर्गों के मन में रामकथा के पूज्य पात्रों के प्रति अगाध श्रद्धा। 

पुराने समय की कुमाऊंनी रामलीला में भाग लेने की प्रथम योग्यता होती थी ऊंचा स्वर, सुरों पर अच्छी पकड़ और मधुर आवाज। उत्तराखण्ड खासकर कुमाऊं अंचल में होने वाली पूरी रामलीला मुख्यतया गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है जो पीलू, बसंत बहार, विहाग, पुर्विया, धनाश्रीजैसे कठिन रागों पर आधारित है। रामलीला के गेय संवादो में प्रयुक्त गीतों में दादरा, कहरुवा, चांचर व रुपक ताल का प्रयोग होता है। कलाकारों के साथ-साथ साल-दर-साल रामलीला देखते आ रहे दर्शकों को भी एक एक संवाद याद होता है। हारमोनियम और तबला मुख्य वाद्य यन्त्र होते हैं और हर पात्र अपने संवाद गायन शैली में दर्शकों तक पहुंचाता है। भावों और संवादों की तीव्रता में पारसी थिएटर की छाप दिखाई देती है। रामलीला मुख्यत: पुरुष ही महिला पात्रों का अभिनय करते हैं लेकिन अब कुछ जगहों पर महिलाएं भी कास्ट्यूम, मेकअप और पार्श्व गायन में सक्रिय भागीदारी निभाती हैं।

रामलीला के कुछ मुख्य प्रसंग हैं जैसे - सीता स्वयंवर,परशुराम-लक्ष्मण संवाद, दशरथ-कैकयी संवाद, सुमन्त का राम से आग्रह, सीताहरण, लक्ष्मण शक्ति, अंगद-रावण संवाद, मन्दोदरी-रावण संवाद व राम-रावण युद्ध हैं, जिन्हें देखनेके लिये जनता  खासतौर पर उत्सुक रहती है।

यह माना जाता है कि कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर में हुई। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में कुछ सालों के अन्तराल में रामलीला नाटकों का मंचन प्रारम्भ हुआ। कई शहरों में भी रामलीला का मंचन 100 साल से भी अधिक समय से हो रहा है। शास्त्रीय संगीत जटिल पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग सुनकर ही इन पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे।

अल्मोड़ा नगर में 1940-41 में विख्यात नृत्य सम्राट पं० उदय शंकर ने छाया चित्रों के माध्यम से रामलीला में नवीनता लाने का प्रयास किया था। उनके द्वारा किये गये छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की अमिट छाप कुमाऊं की रामलीला पर भी पड़ी।समय के साथ रामलीला मंचन में भी तकनीक का प्रयोग किया जाने लगा है। विशेष प्रभाव देने के लिये आतिशबाजी, रस्सी के सहारे हवा में उड़ना, प्रोजेक्टर आदि से दृश्य निर्माण के सफ़ल प्रयोग हुए हैं।

आज से 25-30 साल पहले जाड़ों की तीव्रता बढने के साथ ही “रामलीला की तालीम” शुरु होने की खबरें सुनाई देती थीं। किशोरावस्था में पहुंचे तो तालीम शब्द को भी कुमाऊंनी भाषा का शब्द समझा, ये तो बाद में पता चला कि तालीम उर्दू भाषा का शब्द है। एक पौराणिक कथा के मंचन की तैयारियों को “अभ्यास” की जगह “तालीम” कब से कहां जाने लगा होगा? ये सवाल दिमाग में घूमता रहता था...


दरअसल हमारा मुस्लिम समाज कुमाऊं के हर कस्बे-शहर में होने वाली रामलीला मंचन का एक अभिन्न अंग है.. संगीत, मेकअप, मंच सज्जा, मुखौटा निर्माण से लेकर मंच पर अभिनय में भी मुस्लिम समाज के सदस्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आये हैं।अभी भी पहाड़ का सामाजिक ताने-बाने में मुस्लिम समाज के लोगों को बहुत सम्मान दिया जाता है। दशहरा और रामलीला तो ऐसे त्यौहार हैं जहां हिन्दू-मुस्लिम के बीच अन्तर समाप्त हो जाता है। दशहरा और रामलीला रचनात्मकता के पर्व हैं। हुनरमन्द की जाति या धर्म नहीं देखा जाता। संगीत और कला हमारे समाज में स्पन्दन पैदा करते हैं और कलाकार दिलों को जोड़ने का काम करते हैं।

 

टीवी और मनोरंजन के अन्य माध्यमों के आने के बाद रामलीला के प्रति अब आम जनता में पुराने दिनों जैसी उत्सुकता नहीं रहती लेकिन अभी भी रामलीला का मंचन पहाड़ के लगभग हर शहर और कस्बे में पूरी तैयारी के साथ होता है। इसके अलावा प्रवासी लोग देश के कई शहरों में पारम्परिक रामलीला का कुमाऊंनी भाषा में मंचन करते हैं। अभिनय और संगीत में रुचि रखने वाले नवोदित कलाकारों को मंच देने वाली इस विधा को जीवित रखा जाना चाहिये।

रामलीला और दशहरा, इन त्यौहारों का सिर्फ़ धार्मिक महत्व नहीं है, इन आयोजनों के साथ एक महत्वपूर्ण सामाजिक सन्देश भी जुड़ा हुआ है। इस समय जब धार्मिक और जातीय कट्टरता हमारी नई पीढी के मन में कटुता पैदा कर रही है, तब समाज के विभिन्न वर्गों के सामूहिक प्रयास से होने वाले रामलीला जैसे आयोजन समाज को सहिष्णु और सौहार्द भाव से मिलजुल कर रहने का सन्देश भी देते हैं।

Monday, November 1, 2010

पहाड़ की ज्वलन्त समस्याओं को सामने रखने में सफल रही “दायें या बायें”

उत्तराखण्ड के ग्रामीण परिवेश पर आधारित बेला नेगी निर्देशित बहुप्रतिक्षित फिल्म “दायें या बायें” 29 अक्टूबर 2010 को देश के कुछ चुनिन्दा शहरों के साथ ही नैनीताल फिल्म फेस्टिवल के पहले दिन प्रदर्शित की गयी. इस फिल्म की लेखिका और निर्देशिका बेला नेगी मूलत: नैनीताल की ही निवासी हैं. इस फिल्म का नैनीताल में प्रदर्शन इसलिये भी खास रहा क्योंकि नैनीताल के ही स्थानीय कलाकारों ने इस फिल्म में कई महत्वपूर्ण रोल निभाये हैं. सभी स्थानीय कलाकार भी फिल्म के विशेष प्रदर्शन के मौके पर उपस्थित थे, सिर्फ गिरीश तिवारी “गिर्दा” को छोड़कर, जिनका अगस्त में देहान्त हो गया था.



फिल्म के स्थानीय कलाकार नैनीताल फिल्म फेस्टिवल के दौरान

“दायें या बायें” एक स्वस्थ मनोरंजक फिल्म होने के साथ-साथ पहाड़ की कई जटिल समस्याओं की ओर भी दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने में सफल रही है. फिल्म के माध्यम से बेला नेगी ने कामेडी के बेहतरीन मिश्रण के साथ पहाड़ों में महिलाओं की स्थिति, शराबखोरी, दिशाहीन युवा पीढी, प्राकृतिक सम्पदाओं के अनियन्त्रित दोहन, राजनेताओं की कुटिल चालों के साथ-साथ पिछड़े इलाकों में शिक्षा व्यवस्था की दुर्दशा को भी बखूबी दर्शाया है. यहां तक की जहरखुरानी और जंगल की आग की तरफ भी ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की गई है. पर्वतीय ग्रामीण अंचल की पृष्टभूमि पर बनी शायद यह पहली फिल्म है जिसे इतने बड़े पैमाने पर बनाया गया है. पूरी फिल्म में पहाड़ के लोकजीवन एवं समस्याओं को बेहतरीन ढंग से दर्शाया गया है. बेला नेगी ने एक दृश्य में जागर का समावेश करके पहाड के लोक संगीत को भी फिल्म में स्थान देने की कोशिश की है.

पूरी फिल्म में काम करने वाले 1-2 कलाकारों को यदि छोड दिया जाये तो बांकी लोगों ने पहली बार फिल्म में अभिनय किया है. यहां तक की बेला ने ग्रामीण लोगों के रोल में गांव के वास्तविक निवासियों से अभिनय करवाया है. इससे पूरी फिल्म हकीकत के बहुत करीब लगने लगती है. पहाड़ पर आधारित फिल्म बनाने की बेला की यह ईमानदार कोशिश भावनात्मक तौर पर तो बेहद सफल रही है. देश भर के जाने-माने फिल्म समीक्षक भी इस फिल्म की तारीफ कर रहे हैं लेकिन आर्थिक आधारपरयह फिल्म कितनी सफल होगी यह देखना दिलचस्प होगा.

Monday, October 4, 2010

उत्तराखण्ड आपदा – इन घावों को भरने में बहुत समय लगेगा

All Photos By- Kalyan Mankoti
हर साल की तरह इस साल भी उत्तराखण्ड के पर्वतीय और मैदानी इलाकों में भारी बारिश के कारण जान-माल का भारी नुकसान हुआ. 18 अगस्त को सुमगढ, जिला बागेश्वर में 18 बच्चों की स्कूल बिल्डिंग में दबने से हुई मौत की खबर ने पूरे राज्य को भारी सदमा पहुंचा, इससे उबरने से पहले ही ठीक एक महीने बाद 18 सितम्बर को अल्मोड़ा जिला मुख्यालय और उसके आसपास के इलाकों के साथ ही नैनीताल जिले के कुछ हिस्सों में बारिश भारी तबाही लेकर आयी. पिथौरागढ में मुनस्यारी तहसील का पूरा क्वीरीजीमिया गांव भूस्खलन के बाद खाली करना पड़ा. गढवाल मण्डल में हालांकि मानव जीवन का नुकसान अपेक्षाकृत कम हुआ लेकिन सम्पत्तियों का नुकसान भारी मात्रा में हुआ. इस बार की आपदा एक जगह पर केन्द्रित न होकर बड़े-छोटे रूप में सब जगह फैली हुई दिख रही है. भारी बारिश से सड़क परिवहन ऐसा ध्वस्त हुआ कि मुख्य सड़कों को खुलने में भी 2-3 महीने का समय लगने का अनुमान है.

अपने समाज में दुखी व्यक्ति की मदद करना और परिचित की खुशी को अपनी खुशी समझना हमारी मूल संस्कृति रही है. इस दैवीय आपदा के समय भी आपदा प्रभावितों की सहायता के लिये हर तरफ से हाथ उठ रहे हैं. लेकिन आपदा प्रभावितों को मुआवजा देने की सरकार की नीति पर कई सवाल उठाये जा रहे हैं. सरकार द्वारा अनुमोदित धनराशि आपदा प्रभावितों को राहत पहुंचाने के लिये नाकाफी साबित हो रही है. सरकार द्वारा चलायी जा रही आपदा राहत का एक दुखद पहलू यह है कि सरकार उन्हीं लोगों की सहायता के प्रति अधिक गम्भीर है जिनके परिवार में मानव जीवन की क्षति हुई है. अधिकांश परिवार ऐसे हैं जिनके घरों को दिन में नुकसान हुआ, जिससे इनकी और परिवार की जान तो बच गयी लेकिन घर, मवेशी, अनाज, बर्तन, कपड़े और अन्य सम्पत्ति पूर्ण रूप से मलवे में दब गयी या क्षतिग्रस्त हो गयी. ऐसे परिवारों के प्रति सरकार संवेदनशील नजर नहीं आ रही है.

पिछले सप्ताहान्त में अल्मोड़ा और उसके आसपास आपदा से प्रभावित क्षेत्रों में जाकर देखने पर यह बात समझ में आयी कि सरकार ने लगभग 2 हफ्ते बाद भी ऐसे परिवारों को नजरअन्दाज किया हुआ है. क्षतिग्रस्त घर के अन्दर सभी आवश्यक सामग्री दब चुकी है और दुधारू जानवर भी खत्म हो गये हैं. अल्मोड़ा से 40 किमी दूर जूड़-कफून गांव के शेर राम ने बताया कि आपदा आने के बाद उन्हें तीन दिन तक खाना नसीब नहीं हुआ. शेर राम की बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे राज्य का आपदा प्रबन्धन कितना चुस्त-दुरुस्त है. गांवों के साथ-साथ कस्बों की स्थिति भी खराब है. अल्मोड़ा शहर के कई मोहल्ले भूस्खलन की चपेट में आये हैं. डिग्री कालेज के पास इन्दिरा कालोनी के कई घर अब रहने लायक नहीं रह गये हैं.

इस समय जब प्रशासन के आला अफसरों को आपदा पीड़ितों को राहत पहुंचाने में जुटना चाहिये, वो विशिष्ट लोगों के दौरों की व्यवस्था करने में जुटे हुए हैं. पहाड़ को भुला चुके पहाड़ी मूल के कई नेता भी इस बार आपदा प्रभावितों से मिलने पहुंच रहे हैं, लेकिन इनके दौरों से विपदाग्रस्त लोगों की समस्याओं का स्थायी समाधान होगा या ये दौरे सिर्फ खानापूर्ति में सिमट जायेंगे, यह भविष्य में देखा जायेगा.




आपदा के आधे महीने बाद भी पुनर्वास और भविष्य में ऐसी घटनाओं से बचने की योजनाओं के बारे में काम शुरू नहीं हो पाया है. अब जब बारिश का कहर थम चुका है और सरकार को केन्द्र से आपदा राहत के लिये धन भी आबन्टित हो चुका है, इस समय भी पहाड़ में कुछ ऐसे लोग सरकार की नजरों में आने से बच गये हैं, जिनका सर्वस्व प्रकृति के इस कोप ने खाक कर दिया है. उत्तराखण्ड के सभी लोगों के मन में यह आशंका है कि केन्द्र से मिली धनराशि का सदुपयोग हो भी पायेगा या नहीं. अल्मोड़ा के लोगों का मानना है कि सरकार बारिश खत्म होने के कुछ समय बाद इस विपदा को भी वैसे ही भूल जायेगी जैसे वो गरमी खत्म होते ही पेयजल की समस्या को भूल जाती है.

आपदा प्रभावित क्षेत्र का दौरा करने के बाद हमें यह महसूस हो रहा है कि इन आपदा प्रभावित लोगों की सहायता के लिये उत्तराखण्ड के सभी प्रवासियों और निवासियों को आगे आना चाहिये और उन्हें इस बात का अहसास कराना चाहिये कि सभी लोग उनके साथ है. सरकार की दिशा और नीति देखकर तो यही लग रहा है कि उत्तराखण्ड और आपदाओं का साथ बहुत लम्बा रहेगा. भगवान न करे अगला नम्बर हमारा या किसी परिचित का होगा तो तब ये ही लोग हमारी मदद करेंगे, जिनकी मदद हम अभी कर रहे हैं. सरकार और अफसर तो शायद तब भी विशिष्ट लोगों के दौरों को सुगम बनाने में व्यस्त होंगे.


प्रवासी युवाओं की संस्था "क्रिएटिव उत्तराखण्ड - म्यर पहाड़" भी उत्तराखण्ड के आपदा प्रभावितों को राहत सामग्री पहुंचाने का प्रयास कर रहा है. ज्यादा जानकारी के लिए यहां जाएं.