Thursday, March 20, 2008

कहानी अजर-अमर लोकगीत "बैङू पाको बारामासा" की

मोहन उप्रेती जी, ब्रजेन्द्र लाल शाह जी एवं नईमा खान उप्रेती जी

कहते हैं जीवन में हर क्षण का महत्व है, और एक क्षण में जीवन परिवर्तित करने की क्षमता होती है. इसी तरह एक छोटी सी घटना ने बदला उत्तराखण्ड के संगीत का चेहरा. उत्तराखण्ड लोक संगीत का सबसे लोकप्रिय, कर्णप्रिय गीत "बैङू पाको बारामासा" कैसे रचा गया? आइये जानें "पहाड 9-10" में प्रकाशित श्री ब्रजेन्द्र लाल शाह जी द्वारा लिखित एक संस्मरण के इस अंश के माध्यम से –

याद आ रही है जाखन देवी (अल्मोडा) की एक शाम. वहाँ दुकानों में एक छोटे से झुरमुट में उदेसिंह का रेस्तरां था. जिसे हम लोग उदय शंकर का होटल कहते थे. उस शाम मैं गुजर रहा था उद्दा की दुकान के सामने से. अचानक दुकान की सबेली में खडे मोहन (मोहन उप्रेती) ने आवाज दी.

“कहाँ जा रहा है ब्रजेन्द्र? यहाँ तो आ!”

“क्या है यार? घूमने भी नहीं देता.” मैं खींझ कर उदेसिंह की दुकान में घुस गया. कमरे की बेंच पर हम बैठ गये. उसके सामने ही लगी हुई लकड़ी की खुरदुरी 'रस्टिक' मेज थी. मोहन कुछ उत्तेजित सा लग रहा था. मेज को तबला मानकर वह उसमें खटका लगा कर एक पूर्व प्रचलित कुमाऊंनी गीत को नितान्त नई धुन तथा द्रुतलय में गा रहा था.वह बार-बार एक ही बोल को दुहरा रहा था. उस गीत की यह नई चंचल धुन मुझे भी बहुत अच्छी लगी.
गीत था-


बैङू पाको बारामासा.... हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला.
रूणा भूणा दिन आयो
हो नरैण पुजा म्यारा मैता मेरी छैला.


मोहन बार-बार यही धुन दुहरा रहा था.
“अरे भाई… आगे तो गा….” मैं बेसब्र होकर बोला.
“यार ब्रजेन्द्र आगे तो मुझे भी नहीं आता....किसी के मुंह से सुना था.तर्ज भूल गया इसी लिए नई धुन बना रहा हूं. इसके आगे कुछ लिख.” पास ही लकडी की फर्श पर 'सीजर' सिगरेट का खाली डिब्बा पडा था. मैने उठाया उखाड़ कर खोला.... उदेसिंह से पेंसिल लेकर उस बोल को आगे बढाने का प्रयास प्रारंभ कर दिया.

गीत की मात्राओं के हिसाब से मुझे स्व. चन्द्रलाल वर्मा (कुमाऊँनी कवि) द्वारा बतलाए गए न्योली गीत के कुछ बोल याद आये और रुचे. मैने न्योली गीतों की कुछ पंक्तियाँ तथा कुछ उसमें अपनी तरफ से जोड कर गीत को पूरा कर दिया और मोहन के प्रयास से यह विश्व विख्यात लोकगीत बन गया.

6 comments:

Tathaastu said...

kya hem, itne din ho gaye shuru kiye tum ab bata rahe ho.

Mene teeno post par daale, Beru paako ki kehani batane ke liye bahute dhanyvad.

Pehar se palayan bahut bari samasya hai, us per bhi bahut achha aalek hai.

Nanihaal ki baaten jaari rakhen, aur aama ko hamara bhi pailaag.

Shailesh Upreti said...

Hi ...ye mere dost hem ke liye....his post are as good as he is...tum mahaan cha pant jew jai hoo tumeri...tumhare jaise pahari pe Uttarakhand ko hamesha garv rahega,,,jo dedication hai wo prenna ka shroot hai...thnx for writing so heart touching words...Aamma ki photo ne meri aankh main aanshu laa diye...i lost my AMA a month back only...thnx keep providing the original flavor of Pahar...JAI UTTARAKHAND

Unknown said...

लिखना मत छोड़िये आप अच्छा लिखते है

Unknown said...

लिखना मत छोड़िये आप अच्छा लिखते है

Gopu Bisht said...

वाह दाज्यू, बहुत सुंदर लिखा है । अच्छा लगा।

Kewal Joshi said...

इस गीत को नई धुन उप्रेती जी ने दी होगी पर ये गीत कुमायू का पारम्परिक गीत है जिसका रचियता गुलामी के कारण अग्यात हो गया.पुरातन लोकगीतों का मौखिक ही प्रसारण हुआ करता था उस जमाने में , इसलिये लिखित उपलब्धता नहीं मिलती ...एसा कहा जाता है .