Tuesday, March 18, 2008

ढहते मकान और जंग लगे ताले

पलायन और पहाड़ का सम्बन्ध कोई नया नही है. सदियों से लोग देश के विभिन्न भागों से क्रूर शासकों के दमन से बचने अथवा तीर्थयात्रा के उद्देश्य से पहाड़ों की तरफ आये, और यहीं के होकर रह गये. इनमें मुख्यतः दक्षिण भारत और महाराष्ट्र के ब्राह्मण तथा राजस्थान के ठाकुर थे, जिन्हें तत्कालीन राजाओं ने योग्यतानुसार उचित सम्मान दिया और अपनी राजव्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग बनाया.

वर्तमान समय में पलायन का यह प्रवाह उल्टा हो गया है. जनसंख्या बढने से प्राकृतिक संसाधनों पर बढते बोझ, कमरतोड मेहनत के बावजूद नाममात्र की फसल का उत्पादन तथा कुटीर उद्योगों की जर्जर स्थिति के कारण युवाओं को पहाड़ों से बाहर निकलने को मजबूर होना पडा . 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में पहाड़ों में अंग्रेजों के आने के बाद इस क्षेत्र के युवाओं का सैन्य सेवाओं के लिए पहाड़ से बाहर निकलना प्रारम्भ हुआ. पहाड़ों का जटिल जीवन, कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में रहने का अभ्यास, मजबूत कद-काठी, सीधे सरल, ईमानदार व शौर्यवीर पहाडी पुरुष अपनी कार्यकुशलता व अदम्य साहस के कारण देश-विदेश में युद्धक्षेत्र में अपना लोहा मनवाने लगे.

20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में शिक्षा के प्रति जागरुकता के फलस्वरूप युवाओं का उच्च शिक्षा के लिए मैदानी क्षेत्रों की तरफ आना प्रारम्भ हुआ. यही समय था जब पहाड़ से बाहर सैन्य सेवाओं के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी रोजगार करने लगे. कई लोगों ने साहित्य, कला व राजनीति में अच्छा नाम कमाया. स्वतन्त्रता के बाद पहाड़ों में धीरे-धीरे कुछ विकास हुआ. शहरों-कस्बों में धीरे-धीरे उच्च शिक्षा के केन्द्र विकसित हुए. ग्रामीण, दुर्गम इलाकों में शिक्षा के प्रति लोगों का रूझान बढने लगा.पिछले कुछ सालों में तकनीकी शिक्षा प्रशिक्षण के भी कुछ संस्थान खुले.

उद्योगो की शून्यता तथा सरकारी नौकरियों की घटती संख्या के कारण वर्तमान समय में भी पहाड़ में शिक्षित युवाओं के पास मैदानों की तरफ आने के अलावा कोई विकल्प नही है.

पहाड़ के गांवों से होने वाले पलायन का एक पहलू और है. वह है कम सुगम गांवों तथा कस्बों से बडे शहरों अथवा पहाड़ों की तलहटी पर बसे हल्द्वानी, कोटद्वार, देहरादून, रुद्रपुर तथा हरिद्वार जैसे शहरों को होता बेतहाशा पलायन. मैदानी इलाकों में रहकर रोजगार करने वाले लोग सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने गांवों में दुबारा वापस जाने से ज्यादा किसी शहर में ही रहना ज्यादा पसन्द करते हैं.


स्थिति जितनी गम्भीर बाहर से दिखती है असल में उससे कहीं अधिक चिंताजनक है. जो गांव शहरों से 4-5 किलोमीटर या अधिक दूरी पर हैं उनमें से अधिकांश खाली होने की कगार पर हैं. सांकल तथा कुण्डों पर पडे हुए ताले जंग खा रहे हैं. और अपने वाशिन्दों के इन्तजार में खण्डहर बनते जा रहे दर्जनों घरों वाले सैकडों मकान, पहाड़ के हर इलाके में हैं. द्वार-किवाड, चाख और आंगन के पटाल जर्जर हो चुके हैं. काली पाथरों (स्लेटों) से बनी पाख (छत) धराशायी हो चुकी हैं.

उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद बनी किसी भी सरकार ने इस गम्भीर समस्या के समाधान के लिये ईमानदार पहल नहीं की. अपितु मैदानी इलाकों को तेजी से विकसित करने की सरकारी नीति से असन्तुलित विकास की स्थिति पैदा हो गयी है. जिससे पहाड़ से मैदान की तरफ होने वाले पलायन को बढावा ही मिलेगा. क्या उत्तराखण्ड की सरकार पहाड़ों के पारंपरिक उद्योगों के पुनरुत्थान के लिए भी प्रयास करेगी? पर्यटन उद्योग तथा गैरसरकारी संस्थानों के द्वारा सरकार पहाड़ों के विकास के लिए योजनाएं चला रही है, उससे पहाड़ के लोगों को कम मैदान के पूंजीपतियों को ही ज्यादा लाभ मिल रहा है.

राष्ट्रीय स्तर पर जिस "ब्रैन ड्रैन" को रोकने के लिए सरकार हाथ पांव मार रही है, जरूरत है कि उत्तराखण्ड की सरकार भी देश और विदेशों में काम कर रहे प्रतिभावान लोगों को उत्तराखण्ड के विकास से जोडने की पहल करे. लेकिन हम लोग, जो वातानुकूलित कमरों में बैठ कर लैपटोप/कम्प्यूटर में इंटरनेट पर ये लेख पढ रहे हैं, क्या वापस पहाड़ जाने की सोच सकते हैं? या फिर केवल सरकार को कोस कर और इस मुद्दे पर बयानबाजी करके ही इस समस्या का पुख्ता समाधान मिल जायेगा?

1 comment:

पंकज सिंह महर said...

हेम दा,
बहुत अच्छा लगा यह लेख और उससे भी अच्छा लगा अंत में आपके द्वारा पूछा गया प्रश्न.....। यह एक दारुण सच है कि हम पहाड़ी लोग पहाड़ के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और सरकारों को कोसते हैं, लेकिन हम क्या कर रहे हैं, अपने पहाड़ के लिये??? सरकार को कोसते तो सब हैं लेकिन क्या आज तक किसी ने सरकार को एक सुझाव भेजा, अपने स्तर पर कोई प्रयास किया,...... नहीं, सिर्फ आलोचना और आलोचना किसी समस्या का हल नहीं होती।
जय उत्तराखण्ड!