हमारे बचपन के
दिनों में आज की तरह मनोरंजन के बहुत ज्यादा साधन नहीं थे। पिथौरागढ शहर और आसपास
के गांवों में रामलीला की उत्सुकता से प्रतीक्षा की जाती थी। बढती जा रही ठण्ड की
रात कस्बों में रामलीला शुरु होने से पहले ही लोग अपनी जगह पर आकर बैठ जाते थे।
घरों से स्टूल, दरी और बुजुर्ग लोग कम्बल लपेट कर जगह घेर लेते थे। युवाओं-किशोरों
के मन में रात के मेले में स्वच्छन्द घूमने का आकर्षण होता था तो बुजुर्गों के मन
में रामकथा के पूज्य पात्रों के प्रति अगाध श्रद्धा।
पुराने समय की
कुमाऊंनी रामलीला में भाग लेने की प्रथम योग्यता होती थी ऊंचा स्वर, सुरों पर
अच्छी पकड़ और मधुर आवाज। उत्तराखण्ड खासकर कुमाऊं अंचल में होने वाली पूरी रामलीला मुख्यतया गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत
की जाती है जो पीलू, बसंत बहार, विहाग, पुर्विया, धनाश्रीजैसे कठिन रागों पर आधारित है। रामलीला के गेय संवादो में प्रयुक्त गीतों में दादरा, कहरुवा, चांचर व रुपक ताल का प्रयोग होता है। कलाकारों के साथ-साथ साल-दर-साल रामलीला देखते आ रहे दर्शकों को भी एक एक
संवाद याद होता है। हारमोनियम और तबला मुख्य वाद्य यन्त्र होते हैं और हर
पात्र अपने संवाद गायन शैली में दर्शकों तक पहुंचाता है। भावों और संवादों की
तीव्रता में पारसी थिएटर की छाप दिखाई देती है। रामलीला मुख्यत: पुरुष ही महिला
पात्रों का अभिनय करते हैं लेकिन अब कुछ जगहों पर महिलाएं भी कास्ट्यूम, मेकअप और
पार्श्व गायन में सक्रिय भागीदारी निभाती हैं।
रामलीला के कुछ मुख्य प्रसंग
हैं जैसे - सीता स्वयंवर,परशुराम-लक्ष्मण संवाद, दशरथ-कैकयी
संवाद, सुमन्त का राम से आग्रह, सीताहरण, लक्ष्मण शक्ति, अंगद-रावण संवाद, मन्दोदरी-रावण
संवाद व राम-रावण युद्ध हैं, जिन्हें देखनेके लिये
जनता खासतौर पर उत्सुक रहती है।
यह माना जाता है कि कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर
में हुई। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में कुछ सालों के
अन्तराल में रामलीला नाटकों का मंचन प्रारम्भ हुआ। कई
शहरों में भी रामलीला का मंचन 100 साल से भी अधिक समय से हो रहा है। शास्त्रीय संगीत जटिल पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग सुनकर ही
इन पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे।
अल्मोड़ा नगर में 1940-41 में विख्यात नृत्य सम्राट पं० उदय
शंकर ने छाया चित्रों के माध्यम से रामलीला में
नवीनता लाने का प्रयास किया था। उनके द्वारा किये गये छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की अमिट छाप कुमाऊं की रामलीला पर भी पड़ी।समय के साथ रामलीला मंचन में भी तकनीक का प्रयोग किया
जाने लगा है। विशेष प्रभाव देने के लिये आतिशबाजी, रस्सी के सहारे हवा में उड़ना,
प्रोजेक्टर आदि से दृश्य निर्माण के सफ़ल प्रयोग हुए हैं।
आज से 25-30 साल पहले जाड़ों की तीव्रता बढने के साथ
ही “रामलीला की तालीम” शुरु होने की खबरें सुनाई देती थीं। किशोरावस्था में पहुंचे
तो तालीम शब्द को भी कुमाऊंनी भाषा का शब्द समझा, ये तो बाद में पता चला कि तालीम उर्दू
भाषा का शब्द है। एक पौराणिक कथा के मंचन की तैयारियों को “अभ्यास” की जगह “तालीम”
कब से कहां जाने लगा होगा? ये सवाल दिमाग में घूमता रहता था...
दरअसल हमारा मुस्लिम समाज कुमाऊं के हर कस्बे-शहर में होने वाली रामलीला मंचन का एक अभिन्न अंग है.. संगीत, मेकअप, मंच सज्जा, मुखौटा निर्माण से लेकर मंच पर अभिनय में भी मुस्लिम समाज के सदस्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आये हैं।अभी भी पहाड़ का सामाजिक ताने-बाने में मुस्लिम समाज के लोगों को बहुत सम्मान दिया जाता है। दशहरा और रामलीला तो ऐसे त्यौहार हैं जहां हिन्दू-मुस्लिम के बीच अन्तर समाप्त हो जाता है। दशहरा और रामलीला रचनात्मकता के पर्व हैं। हुनरमन्द की जाति या धर्म नहीं देखा जाता। संगीत और कला हमारे समाज में स्पन्दन पैदा करते हैं और कलाकार दिलों को जोड़ने का काम करते हैं।
टीवी और
मनोरंजन के अन्य माध्यमों के आने के बाद रामलीला के प्रति अब आम जनता में पुराने
दिनों जैसी उत्सुकता नहीं रहती लेकिन अभी भी रामलीला का मंचन पहाड़ के लगभग हर शहर
और कस्बे में पूरी तैयारी के साथ होता है। इसके अलावा प्रवासी लोग देश के कई शहरों
में पारम्परिक रामलीला का कुमाऊंनी भाषा में मंचन करते हैं। अभिनय और संगीत में
रुचि रखने वाले नवोदित कलाकारों को मंच देने वाली इस विधा को जीवित रखा जाना चाहिये।
रामलीला और
दशहरा, इन त्यौहारों का सिर्फ़ धार्मिक महत्व नहीं है, इन आयोजनों के साथ एक
महत्वपूर्ण सामाजिक सन्देश भी जुड़ा हुआ है। इस समय जब धार्मिक और जातीय कट्टरता
हमारी नई पीढी के मन में कटुता पैदा कर रही है, तब समाज के विभिन्न वर्गों के
सामूहिक प्रयास से होने वाले रामलीला जैसे आयोजन समाज को सहिष्णु और सौहार्द भाव
से मिलजुल कर रहने का सन्देश भी देते हैं।
3 comments:
बहुत अच्छा हेम जी
बहुत अच्छा हेम जी
Nice
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